1857 की क्रांति के बारे में आप ये सब जानेंगे: 1857 ki Kranti, 1857 की क्रांति के कारण, 1857 की क्रांति का स्वरूप, 1857 के विद्रोह के प्रभाव वाले क्षेत्र या 1857 की क्रांति से प्रभावित क्षेत्र, 1857 की क्रांति का नेतृत्व या 1857 के विद्रोह के नेताओं का संक्षिप्त विवरण, 1857 की क्रांति का प्रभाव अथवा 1857 की क्रांति के परिणाम, 1857 की क्रांति के असफल होने के कारण
1857 की क्रांति के कारण – 1857 Ki Kranti
1857 की क्रांति को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है। इस क्रांति से पहले भी देश के विभिन्न क्षेत्रों में विद्रोह हुए थे जिनमें मुख्य हैं सन्यासी आन्दोलन उत्तरी बंगाल में, चुआड़ आन्दोलन बिहार और बंगाल में, फरैजी आंदोलन जो की एक किसान आन्दोलन था। लेकिन इन आन्दोलनों का क्षेत्र बहुत सीमित था।
19वीं सदी के शुरुआती दौर में ही ब्रिटिश राज बहुत फैल चुका था। ब्रिटिश शासन का भारत के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा हो चुका था। ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों का शोषण करने वाले कानून बनाये गए। किसानों का शोषण हुआ, मज़दूर वर्ग से ज़बरदस्ती काम करवाया गया, भारतीय राजाओं से उनके राज्य छीन लिए गए, भारतीय संस्कृति और धरम को नष्ट करने के प्रयास किये गए।
ब्रिटिश शासन मनमाने कानूनों, दमन-कारी नीतियों और अन्यायपूर्ण शासन के कारण भारतीयों में रोष पनपने लगा और धीरे धीरे वो रोष बढ़ने लगा। भारतीयों में यह रोष की भावना बढती गई और इस असंतोष की भावना ने विद्रोह को जन्म दिया जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की ईंट से ईंट बजा दी।
प्लासी के युद्ध के सौ साल बाद 1857 में एक सैन्य विद्रोह के कारण शुरू हुए इस विद्रोह में भारतीयों के अन्दर पनप रही असंतोष की भावना ने आग में घी जैसे काम किया। प्रारंभ में एक सैन्य विद्रोह के रूप में शुरू हुए 1857 की विद्रोह ने एक क्रांति का रूप धारण कर लिया। देश के लगभग हर क्षेत्र में यह क्रांति फैल गई।
1857 की क्रांति की शुरुआत सेना में उपयोग के लिए चर्बी वाले कारतूस के कारण भड़के सैन्य विद्रोह से हुई थी, लेकिन इस क्रांति के और भी अहम कारण थे।
1857 की क्रांति के सामाजिक कारण
ब्रिटिश राज्य का अत्याधिक विस्तार होने के कारण अंग्रेज अपने आप को श्रेष्ठ समझने लगे और हम भारतीयों को असभ्य कहने लगे। भारतीयों में असंतोष की भावना बढ़ रही थी क्योंकि अंग्रेज भारत में पश्चिमी सभ्यता का प्रसार प्रचार कर रहे थे। अंग्रेजों ने भारतीय प्रथाओं को ख़त्म करने का प्रयास किया।
अंग्रेजों ने सती प्रथा के अंत, विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह के विरोध का प्रयास किया जिसके कारण भारतीय समाज में असंतोष फैल गया। अंग्रेज खुल्लम खुल्ला गोर काले का भेद करने लग गए थे। इस सब कारणों से भारतीय समाज में असंतोष की भावना बढ़ गई थी।
1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण
1857 की क्रांति का मुख्य राजनितिक कारण था लॉर्ड डलहोजी की गोद निषेध प्रथा या हड़प निति (Doctrine of Lapse) इस निति के अंतर्गत जिन राजाओं की कोई संतान नहीं होती थी उनके राज्यों को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया जाता था। इस निति के कारण भारतीय राजाओं में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष फ़ैल गया था।
इस नीति के अंतर्गत ब्रिटिश शासन ने रानी लक्ष्मी बाई के गोद लिए पुत्र को झांसी की गद्दी पर बैठने से रोका और झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया।झांसी के साथ साथ नागपुर और सतारा को भी हड़प नीति के अंतर्गत ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया। इसके अलावा नाना साहेब की पेंशन रोक दी गई।
बहादुर शाह II के वंशजों को लाल किले में रहने पर पाबंदी लगा दी गई और अवध जो की एक ब्रिटिश शासन का वफादार राज्य हुआ करता था कुशासन का नाम लेकर लॉर्ड डलहोजी द्वारा इस राज्य को भी ब्रिटिश राज्य में विलय कर लिया गया जिससे अवध राज्य में असंतोष फैल गया और वह भी ब्रिटिश शासन का विद्रोही बन गया।
1857 की क्रांति के आर्थिक कारण
अंग्रेजों ने भारी कर नीति के जरिए भारतीय किसानों को शोषित किया। भारी कर ना चुका पाने के कारण किसान साहूकारों के कर्जदार बन गए और उनको अपनी जमीं से हाथ धोना पड़ा जो की उनकी आजीविका का इकलौता साधन थी। अंग्रेजी राज में किसानों की स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी।
इसके साथ साथ अंग्रेजों ने भारतीय कपडा उद्योग को भी बर्बाद कर दिया। अंग्रेज भारत से कच्चा माल लेके जाते थे और मशीनों से बना तैयार माल भारत लाकर बेचते थे। भारतीय हस्तशिल्प और करघा जैसे छोटे उद्योग अंग्रेजों के मशीनों से बने सस्ते सामान का मुकाबला नहीं कर पाए और ये कुटीर उद्योग भी बर्बाद हो गए। इसी कारण किसानों और उद्योग वर्ग की जनता में असंतोष फैल गया।
१८५७ की क्रांति के धार्मिक कारण
अंग्रेजों को अपने राज्य का क्षेत्रीय विस्तार करने के साथ साथ अपने धर्म का विस्तार करने का भी विचार आने लगा। अंग्रेजों ने अपने धर्म के विस्तार के लिए ईसाई मिशनरियों को भारत में ईसाई धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए खुली छूट दे दी। अंग्रेजों ने भारतीय उत्तराधिकार क़ानून में बदलाव करके भारतीय जनता की धार्मिक भावना पर आघात किया।बदले हुए उत्तराधिकार क़ानून के अंतर्गत क्रिश्चियन धर्म में परिवर्तित होने वाले हिन्दुओं को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति में हक़ मिल सकता था। ईसाई मिशनरियों ने हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन के लिए लोभ, लालच, आतंक और चालाकी सब तरह के प्रयास किए। बहुत जगहों पर इन्होंने अपनी संस्थाएँ स्थापित की। इससे भारतीय जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष की भावना फैल गई।
सैन्य कारण – (1857 ki Kranti)
अंग्रेजों की सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या ज्यादा थी लेकिन फिर भी उनको अंग्रेज महत्व नहीं देते थे। एक सामान पद पर होने के बावजूद भी भारतीय सैनिक को कम वेतन मिलता था और अंग्रेज सैनिक को ज्यादा। इसके अलावा भारतीय सैनिक को उच्च पदों पर पदोन्नति नहीं दी जाती थी।
अंग्रेजों ने बंगाल की सेना में उच्च जाती के लोगों को शामिल किया जो अवध के थे। वो समुंदर पार जाना अपनी मान्यताओं के विरुद्ध मानते थे फिर भी उन सैनिकों को भेजा गया। भारतीय सैनिकों को अपने घरों से बहुत दूर दूर अपनी सेवाएँ देनी होती थी। इसके अलावा लॉर्ड कैनिंग के समवर्ती क़ानून के अंतर्गत भारतीय सैनिकों को भारत के बहार भी भेजा जा सकता था। इन सब दमन-कारी नीतियों और भारतीय सैनिकों के शोषण के कारण सैनिकों में असंतोष पनप गया था।
1857 की क्रांति के तत्कालीन कारण
1857 की क्रांति का तत्कालीन कारण था सूअर और गाय की चर्बी लगे हुए कारतूस। उपयोग करने से पहले इन कारतूसों को दांतों से काटकर उपयोग में लिया जाता था। जब भारतीय सैनिकों को इस बात की भनक हुई की इन कारतूसों पर गाय व सूअर की चर्बी लगी है तो सैनिकों में विद्रोह की आग भड़क उठी।
1857 में क्रांति शुरू होने से पहले मार्च 29, 1857 को बैरकपूर छावनी के मंगल पाण्डेय नामक सैनिक ने उत्तेजना में कई ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों को मार डाला। मंगल पाण्डेय को बंदी बनाकर अप्रैल 8, 1857 को फाँसी पर लटका दिया गया। मंगल पाण्डेय की फांसी इस क्रांति की आग के लिए पहली आहुति थी।
उसके बाद 3 एल सी परेड मेरठ में 90 घुड़सवार सैनिकों को ये कारतूस दी गई लेकिन उनमें से 85 सैनिकों ने उनका उपयोग करने से मना कर दिया जिसके कारण उनका कोर्ट मार्शल करके उनको कारावास में दाल दिया गया। उसके बाद और भी सैन्य टुकड़ियों द्वारा विरोध किया गया। सबसे पहले 20 एन-आई टुकड़ी द्वारा विद्रोह की शुरुआत की गई और रविवार के दिन 10 मई को श्याम के 5 या 6 बजे के आस पास यह विद्रोह शुरू हो गया।
1857 की क्रांति का स्वरूप
1857 के विद्रोह ने भारत में उथल पुथल मचा दी थी और यह विद्रोह एक विवाद का विषय बन गया। इस विद्रोह के स्वरूप के बारे में अब तक कोई सर्वमान्य धारणा सामने नहीं आई है। अलग – अलग इतिहासकारों, विशेषज्ञों और विभिन्न वर्ग के लोगों ने इस विद्रोह को अलग अलग रूप दिया है।
किसी ने इस विद्रोह को सिर्फ एक सैन्य विद्रोह कहा तो किसी ने एक धार्मिक विद्रोह, किसी ने इस विद्रोह को सभ्यता और बर्बरता के बीच की जंग कहा तो किसी ने पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता के बीच की जंग कहा। अंग्रेज इस विद्रोह को एक सैनिक ग़दर और भारतीय राजाओं द्वारा अपने राज्यों को वापिस लेने के लिए किया गया प्रयास समझते रहे।
बेन्जामिन डिजरेली जो की इंग्लैंड के रूढ़िवादी दल के नेता थे उन्होंने इस विद्रोह को राष्ट्रीय विद्रोह कहा। उनका कहना था की यह कोई एकदम होने वाला विद्रोह नहीं था। यह वर्षों से भारत के विभिन्न वर्गों के अन्दर पनप रहे असंतोष का परिणाम था। ब्रिटिश शासन की दमन-कारी नीतियों के कारण ये सब असंतुष्ट वर्ग किसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने बाकी धारणाओं की आलोचना करते हुआ कहा है की यह एक साम्राज्य के उत्थान और पतन करने जैसे संग्राम था और ऐसे विद्रोह सिर्फ चर्बी वाले कारतूस के कारण नहीं भड़कते हैं।
1857 की क्रांति के स्वरूप को समझने के लिए कुछ ध्यान देने योग्य मत निम्नलिखित हैं:
- सर जॉन लोरेन्स और सीले का कहना था की चर्बी वाले कारतूसों के कारण शुरू हुआ यह एक सैनिक ग़दर के अलावा कुछ नहीं था।
- बेन्जामिन डिजरेली ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय विद्रोह कहा है।
- एल. ई. आर. रीस ने इस विद्रोह को एक धार्मिक विद्रोह कहा। लेकिन इनके मत की आलोचना की गई और यह बात कही गई कि इस विद्रोह पर धार्मिक नियंत्रण था हि नहीं कभी। इस विद्रोह में ईसाई धर्म नहीं बल्कि अंग्रेजों की जित हुई थी।
- कैप्टेन जे. जी. मेंडले ने इसको विद्रोह को एक राष्ट्रीय और पूर्ण रूप से सैन्य विद्रोह मानने से इनकार किया। उनका कहना था की ब्रिटिश सेना में अधिकतर संख्या हिन्दू सैनिकों की थी जो अंग्रेजों के निष्ठावान थे। इस विद्रोह में भी सब सैनिकों ने भाग नहीं लिया था।
- सर जेम्स आऊट्राम कहते थे की यह विद्रोह एक मुसलमानों की चाल थी। उनका कहना था की मुसलमानों ने हिन्दुओं के कष्टों का हवाला देकर हिन्दुओं को भड़काया और यह विद्रोह करवाया।
- टी. आर. होम्स इस विद्रोह को सभ्यता और बर्बरता के बीच जंग मानते थे। लेकिन उनके इस मत की भी आलोचना की गई। इसकी आलोचना में यह कहा गया की अगर इस विद्रोह में भारतीय बर्बर थे तो अंग्रेज भी शांत नहीं थे उन्होंने भी सभ्यता नहीं बल्कि बर्बरता से ही काम लिया।
- अशोक मेहता तथा वीर सावरकर ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा है की यह विद्रोह 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद समय समय पर होने वाले विभिन्न क्षेत्रीय आंदोलनों के चलते ही यह योजनाबद्ध विद्रोह शुरू हुआ।
- वि. डी. सावरकर ने भी 1909 में अपनी पुस्तक ‘The indian was of independence, 1857’ में इस विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया।
इस विद्रोह के विषय में इतनी सारी भिन्न धारणाएँ होने के के बाद भी भारत की स्वतंत्रता के लिए इस विद्रोह को महत्व दिया जाता है। भारतीय जनता को इस विद्रोह से प्रेरणा मिलती है और हर भारतीय इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जानते हैं।
1857 की क्रांति से प्रभावित क्षेत्र अथवा यह क्रांति देश के किन किन क्षेत्रों में फैली हुई थी
1857 कि क्रांति का केंद्र दिल्ली और उत्तर प्रदेश थे लेकिन इसके साथ साथ यह क्रांति पूरे भारत में फैली हुई थी। अंग्रेजों ने इस क्रांति को दबाने के लिए इस क्रांति के बारे में गलत धारणाएँ फैलाने के प्रयास किए। उन्होंने इस क्रांति को सिर्फ एक सैन्य विद्रोह बताया। लेकिन असलियत यह नहीं थी यह क्रांति सम्पूर्ण भारत में फैली हुई थी और अनेक वर्गों की जनता ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
उत्तर भारत में मुख्यतः बनारस, कानपुर, लखनऊ, मेरठ, दिल्ली, इलाहाबाद, बरेली, झांसी, बुंदेलखंड और बैरकपुर आदि स्थानों पर यह क्रांति चरम सीमा पर थी। उत्तर प्रदेश इस क्रांति के मुख्य केंद्र में से एक था।
कलकत्ता प्रेजिडेंसी के अंतर्गत आने वाला बंगाल और अवध के क्षेत्र के राजाओं और जनता ने भी इस क्रांति में बढ़ चढ़कर भाग लिया। बिहार में यह विद्रोह जगदीशपुर, दानापुर और पटना के क्षेत्रों में फैला हुआ था। हरियाणा का भी इस विद्रोह में योगदान रहा। हरियाणा के बहादुरगढ़, झज्जर, मेवात, हिसार, गुडगाँव और नारनौल के क्षेत्र में भी यह क्रांति परवान पर थी। पंजाब में भी यह क्रांति भड़की हुई हुई थी। पंजाब के रावलपिंडी, अमृतसर, फिरोजपुर, जालंधर, अम्बाला, झेलम इत्यादि क्षेत्रों भी यह क्रांति व्यापक रूप से फैली हुई थी।
मध्य भारत में भी यह संग्राम फैला हुआ था। मध्य भारत में बुंदेलखंड, ग्वालियर, इंदौर और रायपुर क्षेत्र में भी यह संग्राम पैर पसार चुका था। अंग्रेजों ने इस बात की अफवाह भी फैलाई की यह विद्रोह सिर्फ उत्तर भारत में फैला है जबकि दक्षिण भारत के भी बहुत से क्षेत्रों के राजाओं और जनता और विभिन्न वर्ग के लोगों ने इस क्रांति में शामिल होकर इसको आगे बढ़ाया था।
महाराष्ट्र में यह संग्राम पूना, मुंबई, अहमदनगर, बीजापुर, नासिक, कोल्हापुर और सतारा क्षेत्रों में यह संग्राम मुख्य रूप से फैला था। केरल में कालीकट, कोचीन, तमिलनाडु में आरी, मद्रास और मदुरै, आन्ध्र प्रदेश में हैदराबाद और राजमुडी क्षेत्रों में किसानों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। कर्नाटक के मैसूर और बैंगलोर क्षेत्रों में भी लोगों ने इस क्रांति में शामिल होकर अपनी आहुति दी। यहाँ तक की गोवा की पुर्तगाल की बस्तियों में भी लोगों ने विद्रोह किया।
अतः उपरोक्त वर्णित इस संग्राम के प्रभावित क्षेत्रों को देखते हुए हम कह सकते हैं की यह कोई सीमित क्षेत्रीय सैन्य विद्रोह नहीं था अपितु पूरे भारत में फैला हुआ एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था जिससे भारतीय जनता को प्रेरणा मिलती है।
1857 की क्रांति का नेतृत्व
बहादुर शाह II और जनरल बख्त खां: क्रांतिकारियों ने दिल्ली में बहादुर शाह को अपने विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए सौंपा। बहादुर शाह इस क्रांति में शामिल नहीं होना चाहता था लेकिन क्रांतिकारियों के बहुत आग्रह करने के बाद उसने नेता बनना स्वीकार किया। लेकिन वो इसके लिए सक्षम नहीं था और बूढ़ा हो चुका था। अंग्रेजों ने उसे पकड़ लिया और बंदी बनाकर रंगून में जेल में भेज दिया।
मंगल पाण्डेय: बैरकपुर में मंगल पाण्डेय ने इस क्रांति में अपनी पहली आहुति दी। सबसे पहले विद्रोह की शुरुआत इन्होने ही की थी लेकिन उनके प्रभाव को जल्दी ही दबा दिया गया था और उनको फाँसी दे दी गई थी।
रानी लक्ष्मी बाई: झांसी में रानी लक्ष्मी बाई ने इस क्रांति की बागडौर को सम्भाला। अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा करने के इरादे से हमला किया तो रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों से जमकर टक्कर ली लेकिन झांसी को असुरक्षित जान कर उसको झांसी छोड़कर जाना पड़ा। तात्या टोपे के साथ रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर पहुँच गई। वहां उन्होंने सिंधिया जो विद्रोहियों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दे रहा था को हराकर ग्वालियर पर कब्जा कर लिया लेकिन अंग्रेजों ने वह पर भी हमला किया। अंग्रेजों से लड़ते लड़ते रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु हो गई। रानी लक्ष्मी बाई की वीरता के लिए उनको देश की एक वीरांगना के रूप में जानते हैं। अंग्रेजों ने तात्या टोपे को फांसी पर लटका दिया।
कुंवर सिंह व अमर सिंह: कुंवर सिंह व अमर सिंह ने बिहार के जगदीशपुरा क्षेत्र में विद्रोहियों का नेतृत्व किया। वैसे तो कुंवर सिंह जमींदार थे लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और वो दिवालिया हो चुके थे। दानापुर के क्रांतिकारियों द्वारा आग्रह करने पर उन्होंने इस क्रांति का नेतृत्व सम्भाला।
नाना साहिब और तात्या टोपे: इन दोनों के हाथ में कानपुर क्षेत्र की क्रांति की बागडोर थी। नाना साहिब बाजीराव II के गोद लिए पुत्र थे। बाजीराव II की मृत्यु के बाद नाना साहिब की पेंशन अंग्रेजों ने बंद कर दी जिसकी वजह से नाना साहिब अंग्रेजों से गुस्सा थे और उनसे बदला लेना चाहते थे। मेरठ में क्रांति फैलने के दौरान ही नाना साहिब ने कानपुर पर क़ब्ज़ा कर लिया और खुद को वह का पेशवा घोषित कर दिया। क्रांति का नेतृत्व करते समय उनकी अंग्रेजों से टक्कर हुई और वो हार गए और नेपाल के जंगलों में कहीं छुप गए और बाद में मिले नहीं।
बेगम हजरतमहल: बेगम हजरतमहल को अवध के सिपाहियों, किसानों और जनता का भरपूर सहयोग मिला और उन्होंने अवध में क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया।
उपरोक्त वर्णित मुख्य नेताओं के अलावा भी निम्नलिखित व्यक्तियों ने भिन्न भिन्न क्षेत्रों में क्रांति का नेतृत्व किया:
- मौलवी लियाकत अली: बनारस
- हाकिम अहसान उल्लाह: दिल्ली
- मौलवी अहमद उल्लाह: फ़ैजाबाद
- मोहम्मद खान: बिजनौर
- खान बहादुर खान: बरेली
- राजा प्रताप सिंह: ओडिशा
- मनिराम: असम
- गजाधर सिंह: राजस्थान
- कदम सिंह, सेवी सिंह: मथुरा, गोरखपुर
- अजीमुल्लाह: फतेहपुर
1857 की क्रांति का प्रभाव ( 1857 ki Kranti Ke Parinaam)
1857 की क्रांति ने ब्रिटिश शासन और भारतीय जनता दोनों को बहुत प्रभावित किया। अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति से यह समझ आ गया की उनको नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है और सेना का पुनर्गठन करने की भी ज़रूरत है। इस विद्रोह के कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन ब्रिटिश क्राउन के हाथों में चला गया। इस विद्रोह के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सैन्य इत्यादि प्रभाव पड़े जो निम्नलिखित हैं:
आर्थिक प्रभाव: अंग्रेजों ने यातायात के साधनों का विकास किया जो उनके लिए बहुत फायदेमंद रहा। ब्रिटिश शासन ने एक नई ईस्ट इंडिया कॉटन कंपनी की स्थापना की जिसका काम था भारत से कच्चे माल के रूप में रुई को इंग्लैंड में ले जाकर वह मशीनों से कपडे बनाकर भारत में लाकर बेचना। इससे भारतीय हस्तशिल्प उद्योग की स्थिति बहुत दयनीय हो गई। संरक्षण के नाम पर भारतीय उद्योगों को ब्रिटिश शासन द्वारा कुछ भी नहीं दिया गया। भारत में निवेश करने के लिए ब्रिटिश निवेशकों को बढ़ावा दिया गया और उनको सुरक्षा भी प्रदान की गई।
सेना का पुनर्निर्माण या पुनर्गठन: ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या कम कर दी गई। तोपखाने का पूरा नियंत्रण ब्रिटिश सैनिकों के हाथों में रखा गया। भारतीय सैनिकों को उनके क्षेत्र से बहुत दूर सेवा देने के लिए भेजा जाने लगा। सेना में नियुक्ति के लिए साम्प्रदायिकता, धर्म और जातिगत तत्वों को ध्यान में रखकर नियुक्ति की जाने लगी। इसके अलावा सेना में सैनिकों की संख्या बढ़ा दी गई और एक विशाल सेना का निर्माण किया गया ताकि भविष्य में 1857 की क्रांति जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर उसको दबाया और कुचला जा सके। इंग्लैंड में कुछ सैनिकों को आरक्षित रखा गया ताकि ज़रूरत पड़ने पर उन सैनिकों को बुलाया जा सके।
महारानी का घोषणा पत्र: इस विद्रोह के पश्चात भारत में अनिश्चितता की भावना उत्पन्न हो गई थी और पूरे भारत में उथल पुथल मची हुई थी। इस स्थिति को देखते हुए ब्रिटेन की महारानी का घोषणा पत्र आया जिसको लौर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद में एक बड़ा दरबार आयोजित किया और इस घोषणा पत्र को पढ़कर सुनाया। इस घोषणा पत्र में निम्नलिखित बातों का उल्लेख था:
- पक्षपात के बिना शिक्षा और योग्यता के आधार पर भारतीयों को सरकारी नौकरी दी जाएंगी।
- जितना अभी ब्रिटिश राज्य का विस्तार है उससे आगे और विस्तार की कोई नीति नहीं अपनाई जाएगी।
- भारतीयों की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई जाएगी।
- सब भारतीयों को समान रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त होगा।
- भारत के देशी राजाओं के साथ जो समझौते किए हुए थे ब्रिटिश शासन उनका आदर करेगा और उनकी रक्षा करेगा।
- उन भारतीय क्रांतिकारी को माफ किया जायेगा जिन्होंने किसी अंग्रेज़ अधिकारी को नहीं मारा था।
सरकारी नौकरियों में समान अधिकार के नाम पर भेदभाव: महारानी के घोषणा पत्र में इस बात का उल्लेख तो था की सब भारतीयों को शिक्षा और योग्यता के आधार पर सरकारी नौकरी दी जाएगी, लेकिन असल में ऐसा कुछ नहीं हुआ। रोयल कमीशन के सामने पेश होने के लिए कभी किसी भी भारतीय को योग्य नहीं समझा गया।
अगर कोई भारतीय सैनिक वायसराय से कमीशन ले भी लेता था तो उसे किसी अंग्रेज़ सैनिक के मुक़ाबले कमजोर ही समझा जाता था। ब्रिटिश शासन चाहता था की भारतीय सिर्फ अंग्रेज़ अधिकारियों की चापलूसी करें। इसलिए भारतीयों को क्लर्कों और सहायकों के पद ही दिये जाते थे। इससे ये भारतीय कर्मचारी ब्रिटिश प्रशासन और जनता के बीचोलिए बनकर रह गए।
ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत: विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश संसद द्वारा एक अधिनियम के तहत भारत में शासन की दौर कंपनी से छीनकर ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी और भारत में कंपनी के शासन को खतम कर दिया गया। बोर्ड औफ़ कंट्रोल और बोर्ड औफ़ डाइरेक्टर की जगह भारत सचिव और उसकी 15 सदस्यों वाली इंडियन काउंसिल ने ले ली। इस घटना से जो बदलाव आया उससे एक नया युग शुरू हुआ।
सांप्रदायिक घृणा को जन्म: भविष्य में कभी आगे ऐसा विद्रोह न हो उसके लिए अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो की नीति को अपनाया। इस विद्रोह में मुसलमानों ने हिंदुओं से ज्यादा उत्साहित होकर इस विद्रोह में हिस्सा लिया था, तो अंग्रेजों ने अब हिंदुओं के पक्ष में बोलना प्रारम्भ कर दिया और मुसलमानों के खिलाफ। इससे हिन्दू और मुसलमान के बीच एक खाई पैदा होने लगी। जिसका आगे चलकर बहुत घातक परिणाम हुआ। धर्म के नाम पर भारतीय और भारतीय के बीच बढ़ती हुई खाई के परिणामस्वरूप भविष्य में भारत के दो टुकड़े हुए और भारत दो भागों में बंट गया।
भारतीयों को लाभ: 1857 के विद्रोह के नकारात्मक प्रभाव पड़े लेकिन भारतीयों को कुछ लाभ भी हुआ इस विद्रोह से। इस विद्रोह के बाद भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना ने जन्म लिया। जिसके चलते आगे चलकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए बहुत राष्ट्रीय आंदोलन हुए जिनके फलस्वरूप भारत को आज़ादी मिली। इस विद्रोह के पश्चात अंग्रेजों ने भारत के संवैधानिक ढांचे को सुधारने के प्रयास किया जिसकी शुरुआत हुई 1858 के अधिनियम से।
इस विद्रोह के बाद कई अधिनियम आए जिनके फलस्वरूप भारतीयों को शासन में हिस्सा लेने के अवसर मिले। 1858 का विद्रोह ब्रिटिश शासन की नींव को हिला देने वाली घटना थी। यह विद्रोह भारतीयों के लिए एक प्रेरणादायक घटना थी। इससे प्रेरित होकर भारतीयों ने आगे चलकर बहुत आंदोलन करे और गौरवान्वित हुए। इस विद्रोह के बाद आधुनिक भारत के युग की शुरुआत हो चुकी थी।
1857 की क्रांति के असफल होने के कारण
- इस विद्रोह को राष्ट्रीय आंदोलन की संज्ञा भी दी गई थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों के बहुत से हिस्से इस विद्रोह से नहीं जुड़ पाये थे और इस विद्रोह का पूर्ण रूप से देशव्यापी स्तर पर प्रसार नहीं हो पाया था।
- इस विद्रोह के असफल होने का एक कारण यह भी था की यह विद्रोह योजनाबद्ध तरीके से नहीं हो पाया। यह विद्रोह अलग अलग क्षेत्रों में फैला था लेकिन अलग अलग समय पर। अगर जीतने लोग इस विद्रोह में शामिल हुए थे वो सब एक समय और योजनाबद्ध तरीके से विद्रोह करते तो इस विद्रोह के परिणाम ही कुछ और होते।
- इस विद्रोह में प्रभावी नेताओं का अभाव रहा। इस विद्रोह का नेतृत्व करने वाले ज़्यादातर नेता ऐसे थे जिन्होंने क्रांतिकारियों द्वारा बहुत आग्रह करने के बाद इस विद्रोह की बागडोर को सम्भाला। केवल रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहिब और तात्या टोपे जैसे नेता ही कुशलता से इस विद्रोह को सम्भाल रहे थे। कुछ नेता तो अपनी वृद्ध अवस्था में थे। प्रभावी नेतृत्व न होने के कारण कार्य करने में कुशलता और संगठन का भी अभाव था।
- मराठों, सिक्खों और गौरखों की रेजीमेंट ने बहादुर शाह के खिलाफ खड़े होकर अंग्रेजों का साथ दिया। क्योंकि इनको अंग्रेजों ने बहादुर शाह के खिलाफ भड़काया था। अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलमान के बीच धार्मिक हिंसा के बीज बोए लेकिन वो उसमे कामयाब न हो सके लेकिन उन्होंने इन तीन रेजीमेंट को अपनी तरफ कर लिया की अगर बहादुर शाह जीत गया और शासक बना तो वो फिर उन पर अत्याचार करेगा। सिक्खों को अंग्रेजों की बात मानने के कारण था अंग्रेजों द्वारा फैलाया हुआ झूठा फरमान। अंग्रेजों ने बहादुर शाह के नाम फरमान निकाला था की अगर बहादुर शाह जीत गया तो सिक्खों को मारा जाएगा और उनका क़त्ले आम किया जाएगा।
- अंग्रेजों के पास लड़ने के लिए आधुनिक हथियार अत्याधिक मात्रा में थे जबकि क्रांतिकारियों के पास सिर्फ तीर-कमान, भाले, तलवार जैसे परंपरागत इत्यादि हथियार ही थे।
- इस विद्रोह में किसी क्षेत्र के सामंतों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया तो किसी क्षेत्र के सामंतों ने अंग्रेजों का साथ दिया इस विद्रोह को रोकने में। उत्तरी भारत के सामंतों ने अंग्रेजों के खिलाफ इस विद्रोह में हिस्सा लिया जबकि पटियाला, हैदराबाद, ग्वालियर और जींद के सामंतों ने अंग्रेजों का साथ दिया।
- इस विद्रोह में समयबँध तरीके से योजना का अभाव था। यह विद्रोह समय से पहले भड़क गया। अगर इस विद्रोह का कोई समयअनुसर निर्धारित कार्यक्रम होता तो अवश्य ही यह विद्रोह सफल होता।
- इस विद्रोह में सब वर्गों का पूर्ण रूप से जुड़ाव नहीं पाया। क्योंकि इसमें सब वर्गों के विद्रोह के कारण अलग अलग थे। किसान, साहूकारों और जमींदारों से विद्रोह कर रहा था। कामगार वर्ग पूँजीपतियों से, सैनिक ब्रिटिश सेना के अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे तो धार्मिक नेता ईसाई मिशनरियों के खिलाफ। इसलिए इस विद्रोह में स्थानीय उद्देश्य की वजह से यह विद्रोह असफल रहा।
- एक राष्ट्रीय भाषा के अभाव के कारण भी यह विद्रोह असफल रहा। क्योंकि अंग्रेजों के पास एक भाषा अंग्रेजी थी लेकिन भारत में भिन्न भिन्न क्षेत्रों की भाषाएँ अलग-अलग थी जिसे सूचना एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने में उसका स्वरूप बादल जाता था। यह भाषीय कारण भी इस विद्रोह के असफल होने के मुख्य कारणों में से एक था।
1857 ki kranti ko kafi deep me samjhaya hai bahot achha laga read kar ke. as i am preparing for Competitive Exams i can esily understand the value of this topic.
Thanks for sharing this useful content with us.