1857 की क्रांति का स्वरूप कैसा था यह समझने के लिए हमें अलग अलग इतिहासकारों, विशेषज्ञों आदि के मतों को समझना पड़ेगा। इस लेख में 1857 की क्रांति के स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद करते हैं की इस क्रांति का स्वरूप समझने के में यह लेख आपकी बहुत सहायता करेगा।
1857 की क्रांति का स्वरूप
इस विद्रोह ने भारत में उथल पुथल मचा दी थी और यह विद्रोह एक विवाद का विषय बन गया। 1857 की क्रांति के स्वरूप के बारे में अब तक कोई सर्वमान्य धारणा सामने नहीं आई है। अलग – अलग इतिहासकारों, विशेषज्ञों और विभिन्न वर्ग के लोगों ने इस विद्रोह को अलग अलग रूप दिया है।
किसी ने इस विद्रोह को सिर्फ एक सैन्य विद्रोह कहा तो किसी ने एक धार्मिक विद्रोह, किसी ने इस विद्रोह को सभ्यता और बर्बरता के बीच की जंग कहा तो किसी ने पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता के बीच की जंग कहा। अंग्रेज इस विद्रोह को एक सैनिक ग़दर और भारतीय राजाओं द्वारा अपने राज्यों को वापिस लेने के लिए किया गया प्रयास समझते रहे।
बेन्जामिन डिजरेली जो की इंग्लैंड के रूढ़िवादी दल के नेता थे उन्होंने इस विद्रोह को राष्ट्रीय विद्रोह कहा। उनका कहना था की यह कोई एकदम होने वाला विद्रोह नहीं था। यह वर्षों से भारत के विभिन्न वर्गों के अन्दर पनप रहे असंतोष का परिणाम था। ब्रिटिश शासन की दमन-कारी नीतियों के कारण ये सब असंतुष्ट वर्ग किसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने बाकी धारणाओं की आलोचना करते हुआ कहा है की यह एक साम्राज्य के उत्थान और पतन करने जैसे संग्राम था और ऐसे विद्रोह सिर्फ चर्बी वाले कारतूस के कारण नहीं भड़कते हैं।
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1857 की क्रांति के स्वरूप को समझने के लिए कुछ ध्यान देने योग्य मत निम्नलिखित हैं:
- सर जॉन लोरेन्स और सीले का कहना था की चर्बी वाले कारतूसों के कारण शुरू हुआ यह एक सैनिक ग़दर के अलावा कुछ नहीं था।
- बेन्जामिन डिजरेली ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय विद्रोह कहा है।
- एल. ई. आर. रीस ने इस विद्रोह को एक धार्मिक विद्रोह कहा। लेकिन इनके मत की आलोचना की गई और यह बात कही गई कि इस विद्रोह पर धार्मिक नियंत्रण था हि नहीं कभी। इस विद्रोह में ईसाई धर्म नहीं बल्कि अंग्रेजों की जित हुई थी।
- कैप्टेन जे. जी. मेंडले ने इसको विद्रोह को एक राष्ट्रीय और पूर्ण रूप से सैन्य विद्रोह मानने से इनकार किया। उनका कहना था की ब्रिटिश सेना में अधिकतर संख्या हिन्दू सैनिकों की थी जो अंग्रेजों के निष्ठावान थे। इस विद्रोह में भी सब सैनिकों ने भाग नहीं लिया था।
- सर जेम्स आऊट्राम कहते थे की यह विद्रोह एक मुसलमानों की चाल थी। उनका कहना था की मुसलमानों ने हिन्दुओं के कष्टों का हवाला देकर हिन्दुओं को भड़काया और यह विद्रोह करवाया।
- टी. आर. होम्स इस विद्रोह को सभ्यता और बर्बरता के बीच जंग मानते थे। लेकिन उनके इस मत की भी आलोचना की गई। इसकी आलोचना में यह कहा गया की अगर इस विद्रोह में भारतीय बर्बर थे तो अंग्रेज भी शांत नहीं थे उन्होंने भी सभ्यता नहीं बल्कि बर्बरता से ही काम लिया।
- अशोक मेहता तथा वीर सावरकर ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा है की यह विद्रोह 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद समय समय पर होने वाले विभिन्न क्षेत्रीय आंदोलनों के चलते ही यह योजनाबद्ध विद्रोह शुरू हुआ।
- वि. डी. सावरकर ने भी 1909 में अपनी पुस्तक ‘The indian was of independence, 1857’ में इस विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया।
इस विद्रोह के विषय में इतनी सारी भिन्न धारणाएँ होने के के बाद भी भारत की स्वतंत्रता के लिए इस विद्रोह को महत्व दिया जाता है। भारतीय जनता को इस विद्रोह से प्रेरणा मिलती है और हर भारतीय इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जानते हैं।
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