शनिवार, सितम्बर 23, 2023

संवैधानिक उपचारों का अधिकार-अनुच्छेद 32

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दोस्तों, किसी भी व्यक्ति के लिए उसकी स्वतन्त्रता या आजादी सबसे महत्वपूर्ण होती है। अगर व्यक्ति अपने आपको स्वतंत्र महसूस ना करे तो उसके लिए जीना बहुत मुश्किल हो जाता है। कोई व्यक्ति अपने आपको स्वतंत्र महसूस करता है जब उसको कोई अधिकार प्राप्त होते हैं। भारत के नागरिकों को प्राप्त 6 अधिकारों में से संवैधानिक उपचारों का अधिकार भी एक है।

किसी भी देश के नागरिक को यह स्वतन्त्रता प्राप्त होती है तो यह स्वतन्त्रता उनको कुछ अधिकार भी प्रदान करती है। भारतीय संविधान द्वारा भी देश के नागरिकों को 6 मौलिक अधिकार प्रदान करती है। जिनमे से एक अधिकार है संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद 32। इस लेख में आपको Sanvaidhanik upcharon ka adhikaar in hindi के विषय में संक्षिप्त जानकारी दी जाएगी।

पढ़ें: मौलिक अधिकार: परिभाषा, इतिहास, विशेषताएँ, सम्पूर्ण जानकारी।

यदि आप सभी संवैधानिक उपचारों का अधिकार के साथ सभी मौलिक अधिकार पढ़ना चाहते हैं तो ऊपर दिए गए लिंक से पढ़ सकते हैं। चलिए जानते हैं कि संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है और इससे जुड़े सभी संबंधित जानकारियां।

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संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है?

उपचारों का अधिकार

संवैधानिक उपचारों का अधिकार भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत आता है। दरअसल यह अधिकार अपने आप में कोई मौलिक अधिकार नहीं है बल्कि इस अधिकार के अंतर्गत बाकी मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी दी गई है। अर्थात अगर किसी व्यक्ति के किसी भी मौलिक अधिकार का हनन होता है तो वह व्यक्ति इस स्थिति में न्यायालय की शरण में जा सकता है।

यह बात ध्यान देने वाली है की संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अंतर्गत केवल मौलिक अधिकारों की रक्षा के गारंटी देने की व्यवस्था है, ना की असंवैधानिक लौकिक अधिकारों और गैर मौलिक अधिकारों की।

संविधान की आत्मा और हृदय (Soul & Heart of Indian Constitution)

भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा और हृदय की संज्ञा दी गई है। क्योंकि इस अनुच्छेद से ही संविधान पूर्ण होता है। दरअसल संविधान में हमको 6 मौलिक अधिकार दिए गए हैं और अगर इन मौलिक अधिकारों का ही हनन हो जाता है, तो आम नागरिक को अनुच्छेद 32 के अंतर्गत अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण में जाने का प्रावधान किया गया है।

अगर यह संवैधानिक उपचारों का अधिकार, अनुच्छेद 32 नहीं होता तो हम अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते हैं। इसलिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार को अर्थात अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान की आत्मा और हृदय कहा गया है।

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संवैधानिक उपचारों का अधिकार की विशेषताएँ

  • संवैधानिक उपचारों के अधिकार के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को संविधान द्वारा यह अधिकार प्राप्त है की मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय कोई आदेश, लेख और निर्देश जारी कर सकते हैं।
  • यह केवल मौलिक अधिकारों के संरक्षण की गारंटी देता है।
  • इस अधिकार के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय रिट जारी कर सकते हैं।
  • इस अधिकार के होते हुए किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं हो सकता। अगर मौलिक अधिकारों का हनन होता भी है तो उसके लिए व्यक्ति न्यायालय की शरण में जा सकता है।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार का महत्व

संवैधानिक उपचारों के अधिकार के बिना संविधान अधूरा है। भारत के संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के कथानुसार ”इस अधिकार के बिना संविधान का कोई अर्थ नहीं अर्थात इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा और हृदय है।”

यह अधिकार हमारे संविधान को पूर्ण करता है। यही अधिकार है जिसकी वजह से हम अपने मौलिक अधिकारों को सुरक्षित महसूस करते हैं और मौलिक अधिकारों के हनन होने की स्थिति में हम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

रिट क्या हैं – Writs kya hai in hindi?

भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को कुछ खास शक्तियाँ या अधिकार दिए गए हैं। भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 32 (2) के अंतर्गत रिट के विषय में बताया गया है। अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय को यह शक्ति या अधिकार प्राप्त है की किसी व्यक्ति, अधिकारी और प्राधिकारी को न्यायालय किसी कार्य को करने या फिर किसी कार्य को ना करने के लिए निर्देश जारी कर सकता है।

दरअसल, न्यायालय से इस तरह का निर्देश चाहने वाला व्यक्ति न्यायालय में याचिका दायर करता है, जिसको हम रिट कहते हैं। संविधान द्वारा भाग article 32 और article 226 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को यह अधिकार मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए यह अधिकार प्रदान किए गए हैं, ताकि देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन ना हो पाए। रिट को भारतीय संविधान में अंग्रेजों के कानून से लिया गया है। रिट को हम ”न्याय का झरना” भी कहते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों द्वारा निम्नलिखित 5 प्रकार की रिट जारी करते हैं:-

  1. Habeas Corpus (बंदी प्रत्यक्षीकरण):-  इसके अंतर्गत न्यायालय उस अधिकारी को आदेश देता है जिसने किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का आदेश दिया हो। इसमें किसी व्यक्ति को अगर गिरफ्तार किया जाता है तो गिरफ्तार करने के 24 घंटे के अंदर अंदर न्यायधीश (मैजिस्ट्रेट) के सामने शरीर सहित उपस्थित करना होता है और उस व्यक्ति को गिरफ्तार करने का कारण बताना पड़ता है। अगर न्यायधीश (मैजिस्ट्रेट) बताए गए गिरफ्तारी के कारणों से संतुष्ट नहीं होता है या फिर उनकी नजर में उस गिरफ्तारी को अवैध समझा जाता है तो न्यायधीश (मैजिस्ट्रेट) गिरफ्तारी का आदेश देने वाले अधिकारी को उस व्यक्ति को छोडने का बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी कर सकता है।
  2. Mandamus (परमादेश):- यह आदेश उस समय दिया जाता है, जब सरकार या सरकार का कोई उपकरण, न्यायाधिकरण, निगम और लोक प्राधिकरण अपने कर्तव्यों को नहीं निभाती है। इसमें न्यायालय इन निगमों, लोक प्राधिकरणों और सरकार के उपकरणों या फिर सरकार को उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले कार्यों और कर्तव्यों को करने का परमादेश (Mandamus) रिट जारी कर सकता है। परमादेश (Mandamus) का शाब्दिक अर्थ है ”हमारा आदेश है”
  3. Certiorari (उत्प्रेषण):- इसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीन आने वाले न्यायालय, अर्ध न्यायिक प्राधिकरण, न्यायिक निकाय या ट्रिब्यूनल को उनके द्वारा जारी जारी किए गए आदेश को रद्द करने का उत्प्रेष्ण (Certiorari) रिट जारी कर सकता है।
  4. Prohibition (निषेधाज्ञा):- इसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीन आने वाले न्यायालय, अर्ध न्यायिक प्राधिकरण, न्यायिक निकाय या ट्रिब्यूनल के विरुद्ध आदेश जारी किया जाता है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायिक इकाई को किसी कार्यवाही को रोकने का आदेश जारी कर सकते हैं। निषेधाज्ञा रिट का मुख्य उद्देश्य अधीनस्थ न्यायिक इकाई को अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर निकालकर कार्य करने से रोकना है अर्थात उस न्यायिक इकाई द्वारा अपने अधिकारों का अतिक्रमण करने से रोकना है।
  5. Quo Warranto (अधिकार प्रेच्छा):- इस रिट के जरिए न्यायालय द्वारा किसी अधिकारी से उसके अधिकारों की जानकारी प्राप्त की जाती है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति बिना किसी अधिकार के किसी सार्वजनिक पद पर कार्य करता है, तब अधिकार प्रेच्छा रिट उस व्यक्ति को जारी की जाती है और उससे उसके अधिकारों की जानकारी ली जाती है। अगर उस व्यक्ति द्वारा दी गई अधिकार की जानकारी से न्यायालय संतुष्ट नहीं होता है, तब न्यायालय उस व्यक्ति के कार्य करने पर रोक लगा सकती है। अधिकार प्रेच्छा रिट का अर्थ है ”आपका अधिकार क्या है”  

उत्प्रेषण और निषेधाज्ञा में अंतर – Certiorari Vs. Prohibition

उत्प्रेषण रिट तब जारी की जाती है जब सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय की अधीनस्थ न्यायिक इकाई कोई आदेश दे चुकी होती है, अर्थात अधीनस्थ न्यायिक इकाई द्वारा दिए गए आदेश को रद्द करने के लिए यह रिट जारी की जाती है। जबकि निषेधाज्ञा रिट तब जारी की जाती है जब सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय की अधीनस्थ न्यायिक इकाई में कोई कार्यवाही चल रही हो, अर्थात अधीनस्थ न्यायिक इकाई में चल रही कार्यवाही को रोकने के लिए यह रिट जारी की जाती है।

निष्कर्ष

उपरोक्त वर्णित बिंदुओं पर ध्यान देते हैं तो पता लगता है की अनुच्छेद 32 का संविधान में क्या स्थान है। इसके महत्व और विशेषताओं और इसके अंतर्गत किए गए मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रावधानों को पढ़ कर कह सकते हैं की अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा और हृदय की संज्ञा देना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। संवैधानिक उपचारों का अधिकार भारतीय संविधान को पूर्ण करता है। संवैधानिक उपचारों का अधिकार के होने से ही हर नागरिक अपने आपको स्वतंत्र महसूस करता है और अपने अधिकारों के लिए लड़ता है।

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यदि आप संवैधानिक उपचारों का अधिकार और इसके बारे में कोई अन्य जानकारी बाटने चाहते हैं या पूछना चाहते हैं तो आप हमें कॉमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं। यदि आपको संवैधानिक उपचारों का अधिकार और इससे सम्बंधित जानकरी अच्छी लगी तो इसे दूसरों के साथ साँझा करें।

पढ़ें: समानता का अधिकार

Rashvinder
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मैं Rashvinder Narwal टेक्निकल फील्ड में एक्सपर्ट हूं और कंटेंट राइटिंग के साथ-साथ SEO में भी एक्सपर्टीज रखता हूं। मैं हमेशा जनरल नॉलेज और ज्ञानवर्धक टॉपिक्स के साथ ट्रेंडिंग टॉपिक्स पर भी रिसर्च करता रहता हूं और उससे संबंधित लेख इस वेबसाइट पर पब्लिश करता हूं। मेरा मकसद हिंदी डाटा वेबसाइट पर सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना है।
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