संविधान की प्रस्तावना को संविधान का पहचान पत्र भी कहा जाता है और यह सबसे पहले एन ए पलक़ीवाला जी ने कहा था। भारतीय संविधान की प्रस्तावना उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था।
संविधान की प्रस्तावना
संविधान की प्रस्तावना किसी भी संविधान के सिद्धांतों को दर्शाती है। यह दर्शन और उद्देश्य का परिचयात्मक कथन होता है, जिसमें किसी भी देश के संविधान के इरादे और उनके निर्माण के पीछे का इतिहास के साथ, मूल्यों और मूल सिद्धांतों की प्रस्तुति होती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने सबसे पहले अपने संविधान में प्रस्तावना की शुरुआत की थी। और संविधान की प्रस्तावना का तात्पर्य उस संविधान की भूमिका और परिचय से हैं। भारतीय संविधान में इसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। जिसके पश्चात 26 नवंबर 1949 को प्रस्तावना को संविधान में अपनाया गया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भारतीय संविधान की प्रस्तावना को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था। ज्वाला नेहरू द्वारा पेश की गई इस प्रस्तावना को 22 जनवरी 1947 में संविधान सभा द्वारा अपना लिया गया था जिसके बाद संविधान में 26 नवंबर 1949 को इसे अपनाया गया और स्थिति का उल्लेख प्रस्तावना में भी किया गया है।
शुरुआत में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अधिकार को जोड़ा गया था, परंतु 42वां संविधान का संशोधन पर इसमें समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को भी जोड़ा गया। हालाँकि, यह प्रस्तावना किसी भी प्रकार से अदालत में लागू करने योग्य नहीं है यह सिर्फ सिद्धांत के उद्देश्यों को दर्शाती है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
- इसे यह संकेत मिलता है कि भारत में सत्ता का स्त्रोत भारत के नागरिकों के पास है।
- इस प्रस्तावना से यह घोषणा होती है कि भारत एक समाजवादी, संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष और एक लोकतांत्रिक गणराज्य है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत के नागरिकों के लिए न्याय, समानता, स्वतंत्रता, अखंडता और राष्ट्र की एकता के साथ भाईचारे को बढ़ाने का उद्देश्य दिखाई पड़ता है।
- सर्वप्रथम अधिकार का स्त्रोत प्रस्तावना में रखा गया था और 42 में संशोधन में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को जोड़ा गया।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना को पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किया गया था।
- यह पेश किए गए उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है।
- उद्देश्य प्रस्ताव को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को तैयार किया था, जिसके बाद संविधान सभा द्वारा इसे अपनाया गया और फिर 1949 में संविधान में अपनाया गया।
- प्रस्तावना के प्रावधान कानून की अदालतों में लागू नहीं होते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के शब्द और उनके अर्थ
- हम, भारत के लोग – ” हम, भारत के लोग” का प्रस्तावना में होने से यह पता लगता है कि भारत एक प्रजा तांत्रिक देश है। जो भी अधिकार भारतीय नागरिकों को मिले हैं, वह दिखा संविधान का आधार है और भारतीय संविधान जनता को समर्पित है।
- संप्रभुता – संप्रभुता शब्द का अर्थ है कि भारत के ऊपर किसी अन्य देश का नियंत्रण नहीं है और भारत देश किसी भी अन्य देश पर निर्भर नहीं है। वह स्वतंत्र रूप से सभी आंतरिक और बाहरी मामलों को सुलझा सकता है।
- समाजवादी – इस शब्द का प्रस्तावना में अर्थ है कि देश के सभी मुख्य साधना, कुंजी, संपत्ति और जमीन आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व है।
- पंथनिरपेक्ष – इस शब्द का यह अर्थ है कि भारतीय नागरिकों के साथ धर्म या पंथ के आधार पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होगा। धर्म किसी भी व्यक्ति का निजी मामला होता है और धर्म को मानने या ना मानने का अधिकार उस व्यक्ति का व्यक्तिगत फैसला है। शुरुआत में पंथनिरपेक्ष शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख भारतीय संविधान में नहीं मिलता है इसीलिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 जोड़े गए जिनमें धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है।
- लोकतंत्र – प्रस्तावना में “लोकतांत्रिक” शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, अरे शब्द का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अर्थ है कि भारतीय एक लोकतांत्रिक देश है और इसमें राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है। भारत देश में मताधिकार, कानून की सर्वोच्चता, सामाजिक चुनाव, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और किसी भी प्रकार का भेदभाव ना होना लोकतंत्र का ही स्वरूप है।
- गणराज्य – गणराज्य शब्द का अर्थ है कि लोगों द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधि राज्य का मुखिया है। और भारत ने वंश के आधार पर निर्वाचित प्रतिनिधि को न चुनकर लोकतांत्रिक गणतंत्र को अपनाया जिसमें कोई भी वंशानुगत सम्राट नहीं होता है। इसमें प्रतिनिधि को चुनने की शक्ति किसी एक व्यक्ति के हाथ में ना होकर, देश के नागरिकों के हाथ में होती है।
- न्याय – भारतीय संविधान की प्रस्तावना में न्याय को 3 रूपों से देखा जा सकता है जिसमें से यह तीनों राजनीतिक न्याय, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय है। इन्हें रूसी क्रांति 1917 से लिया गया है। यहां पर सामाजिक न्याय का मतलब किसी भी नागरिक के साथ जाति या वर्ण के आधार पर कोई भेदभाव ना होना, आर्थिक न्याय का मतलब धन संपदा और संसाधनों का कुछ ही हाथों में केंद्रित ना होना और राजनीतिक न्याय का अर्थ देश के नागरिकों को समान रूप से राजनीतिक अधिकार प्राप्त होना है।
- स्वतंत्रता – इस शब्द का अर्थ है कि हर भारतीय नागरिक स्वतंत्र है और वह अपने अधिकारों का इस्तेमाल संविधान के अनुसार कर सकता है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व शब्दों को फ्रांसीसी क्रांति (1789 -1799) से भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिया गया है।
- समता – शब्द का अभिप्राय समानता से है, जिससे यह ज्ञात होता है कि किसी भी विशेष वर्ग को कोई विशेषाधिकार नहीं प्राप्त होंगे और देश के सभी नागरिक और वर्ग एक समान है।
- एकता और अखंडता – प्रस्तावना में एकता और अखंडता शब्द देश के नागरिकों की एकता को दर्शाता है और इसके साथ यह भी दर्शाता है कि भारत के सभी राज्य और क्षेत्र भारत से संबंधित हैं और अखंड हैं। यह सभी नागरिकों और सभी क्षेत्रों को एक साथ मिलजुल कर काम करने और आगे बढ़ने का उद्देश्य प्रदान करता है।
- बंधुता – बंधुता शब्द का अर्थ भाईचारे से है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बंधुत्व शब्द भाईचारे को दर्शाता है और देश में एकता और अखंडता के साथ भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है।
प्रस्तावना के उद्देश्य
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह उम्मीद है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी ग्राम धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य है। और इसका उद्देश्य भारत के नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करना है।
प्रस्तावना से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारी
प्रस्तावना को संविधान से अलग रखा गया था जिसके बारे में कई मामले भी हुए हैं और इन पर कई बार चर्चा भी हुई है। सबसे पहले सन् 1960 में बेरुबारी मामले में यह फैसला लिया गया कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1973 में केशवानंद भारती मामले में इसे खारिज कर दिया।
1973 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का ही एक हिस्सा है और इसमें संशोधन किया जा सकता है। परंतु इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बुनियादी सुविधाओं में कोई भी संशोधन नहीं हो सकता है।
जैसा कि आपको ज्ञात है की प्रस्तावना किसी भी संविधान की सच्ची भावना को बताती है और उसकी व्याख्या करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। वर्ष 1995 में एलआईसी ऑफ इंडिया केस में कोर्ट ने इस फैसले को सुरक्षित रखा और कहा कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है।
प्रस्तावना ने दो विधायिका की शक्ति पर रोक है और ना ही वह विधायिका की शक्ति का स्त्रोत है। इसके द्वारा न्याय करना उचित नहीं है अर्थात भारतीय संविधान की प्रस्तावना के प्रावधान कानून की अदालत में लागू नहीं हो सकते हैं।
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